जाटों के बिना किसने पानीपत जीते है


  • जाटों के बिना किसने पानीपत जीते है 

एक कहावत  जो उत्तर भारत मे काफी प्रचलित है


- जाटों के बिना किसने पानीपत जीते? 
आज  हम आपको इस कहावत के पीछे की कहानी बताने वाले है ? 

पानीपत हरयाणा का एक प्राचीन शहर है और यहां भारत के इतिहास के तीन बड़े युद्ध लड़े गए है जिनमे पानीपत का तीसरा युद्ध सबसे महत्वपूर्ण है ।
पानीपत का तीसरा युद्ध 18वी शताब्दी का सबसे विनाशक युद्ध था . पानीपत का तीसरा युद्ध अहमद शाह अब्दाली और मराठों के बीच 14 जनवरी सन 1761 में हुआ था भारत का इतिहास बहुत ही गौरवपूर्ण रहा है इसने हमें बहुत कुछ अच्छा दिया है तो बहुत कुछ बुरा भी किया है कुछ किस्से हमें गौरान्वित करते हैं तो कुछ किस्से ऐसे हैं जो हमारे दिलों में चुभते हैं . इतिहास के कुछ किस्से ऐसे हैं जिनको सुनकर दिल के एक कोने में आग सी लग जाती है , धमनियों में बहता हुआ रक्त सामान्य गति से कहीं तेज चलने लगता है पानीपत का तीसरा युद्ध कुछ ऐसा ही है

पेशवा बालाजी बाजीराव ने अपने भाई सदाशिव और लड़के विश्वासराव को एक बड़ी सेना देकर भारतवर्ष के भाग्य के अन्तिम निपटारे के लिए रवाना किया। पेशवा ने राजपूताने के समस्त राजाओं के पास हिन्दू-धर्म की रक्षा के नाते युद्ध में सम्मिलित होने का निमन्त्रण दिया। किन्तु किसी भी राजपूत राजा ने पेशवा के इस आह्वान को स्वीकार नहीं किया। चम्बल के किनारे पहुंचकर जब भाऊ ने महाराजा सूरजमल को, एक लंबा पत्र लिखकर, धर्म के नाम पर सहायता करने के लिए भेजा, तब महाराजा ने एक सच्चे हिन्दू की भांति मराठों के निमन्त्रण को स्वीकार किया और वह 20,000 जाट सैनिकों के साथ मराठों के कैम्प में पहुंच गए।
सूरजमल राजनीति में बहुत प्रवीण थे । उन्होंने देश की सारी परिस्थितियों को देखकर सदाशिवराव भाऊ को बहुत अनुभवपूर्ण विजयकारी सुझाव दिए थे ।

1. अब्दाली की सेना पर अभी आक्रमण मत करो । अभी सर्दी है । गर्मी को ये लोग सहन नहीं कर सकते, अतः हम गर्मी में ही हमला करेंगे ।

2. कई हजार स्त्रियों और बच्चों को युद्ध में साथ लिए-लिए मत फिरो क्योंकि हमारा ध्यान इनकी सुरक्षा में बंट जाएगा । अतः इन्हें हमारे डीग के किले में सुरक्षित रखो ताकि हम निश्चिन्त होकर लड़ सकें ।

3. शत्रु की सेना पर सीधा आक्रमण नहीं करना चाहिए, क्योंकि इनकी सेना बहुत अधिक है और भारत के बहुत मुस्लिम भी इनके पक्ष में हैं । अतः इनसे झपट्टा मार लड़ाई करके छापे मारो । (यह गुरिल्ला युद्ध ही था जो प्राचीन काल से ही हरयाणा के यौधेयगण और पंचायती मल्ल करते आ रहे थे और सारे भारत को सिखाया था । मनुस्मृति में भी इसका विधान है ।)

4. लालकिले की सम्पत्ति मत लूटो नहीं तो मुस्लिम शासक सरदार रुष्ट होकर अब्दाली के पक्ष में हमारा विरोध करेंगे । हम भरतपुर कोष से मराठा सेनाओं का वेतन भी दे देंगे ।

5. किसी मुगल सरदार की अध्यक्षता में एक दरबार लगाकर स्वदेश रक्षा और युद्ध योजना निश्चित करो ताकि भारत के मुसलमान भी सन्तुष्ट होकर हमारे सहयोगी बने रहें ।

6. जनता को मत लूटो और खड़ी फसलों को मत जलाओ । हम सारे भोजन पदार्थों का प्रबन्ध कर देंगे ।

7. शत्रु की खाद्य टुकड़ी को काटने की योजना बनाओ ।

8. गर्मी आते ही मिलकर शत्रु सेना पर हमला कर देंगे । अब्दाली को भारत के बाहर ही रोकना चाहिए था ।

भाऊ तगड़ा जवान और घमंडी था । उसने महाराजा के इन उत्तम सुझावों को भी उपेक्षा सहित ठुकरा दिया । वह अल्पायु और अनुभवहीन था । उसने महाराजा का अपमान भी किया । इस पर सूरजमल और इन्दौर के राजा ने भाऊ का साथ छोड़ दिया परन्तु सूरजमल ने फिर भी मराठों की सहायतार्थ अपनी आठ हजार सेना लड़ाई में भेजी थी और मराठों को भोजन, चारे और वस्त्रों की भी सहायता दी थी क्योंकि बहुत पहले से आई हुई सेना भूखी मरने लगी थी । भाऊ ने इन सुझावों के विपरीत बड़ी भारी भूल की ।
होल्कर की उपस्थिति में सूरजमल
 ने भाऊ के समक्ष यह विचार रखा,
 “दिल्ली शहर का नियन्त्रण मुझे
सौंप दें, गाजिउद्दीन को वजारत प्रदान
 करें और होल्कर, सिन्धिया तथा
मैं मिलकर शत्रु पर आक्रमण करेंगे, आवश्यकतानुसार
 आप हमें कुमुक भेजिएगा।”
साथ ही महाराजा सूरजमल ने
दिल्ली पर अपने अधिकार की
बात की तो मुगलों के हिमायती
भाऊ को बुरा लग गया उन्होंने कहा
दिल्ली मुगलों की ही रहेगी

अभिमान एवं तिरस्कार के स्वर में भाऊ ने तैस में आकर सूरजमल को कहा, “क्या! दक्षिण से मैं तुम्हारे बल-बूते पर आया हूँ? मेरी मर्जी होगी, करूंगा। तुम चाहो तो यहां रहो, या चाहो तो अपने घर लौट जाओ। अब्दाली को परास्त करके मैं तुम्हें भी देख लूंगा।”

भाऊ के इस तरह के रवैये के देख
कर महाराजा सूरजमल को बहुत
गुस्सा आया और उन्हें बहुत खरी खोटी
सुनाई ओर अपना समर्थन वापस लेलिया
भाऊ ने सूरजमल को बंदी बनाने
की भी योजना बनाई जोकि
विफल रही
महाराजा सूरजमल अपनी सेना सहित
बल्लभगढ़ से चलकर भरतपुर के दुर्ग
में चला गये और वहां बैठकर अब्दाली
और मराठों के बीच युद्ध एवं युद्ध के
परिणामों की उत्सुकता से प्रतीक्षा करने
 लगे। अब्दाली को रसद रुहेला प्रदेश
से प्राप्त हो रही थी और भाऊ की सेना
 के लिए भोजन सामग्री सूरजमल देता
 रहा था। भाऊ की नासमझी और
विश्वासघात के कारण यह अक्षयस्रोत
अब सूख गया। अतः कोई आश्चर्य नहीं
 कि मराठों को पानीपत में खाली पेट
लड़ना पड़ा

अब्दाली तथा भाऊ की सेनाएं पानीपत के युद्धक्षेत्र में आमने-सामने आ डटीं। अब्दाली की बड़ी सेना के साथ नजीब खान व नवाब शुजाउद्दौला की पठान सेना और भारतवर्ष के अनेक मुसलमान जागीरदार शामिल थे। भाऊ के पक्ष में एक भी गैर-मराठा हिन्दू राजा या जागीरदार नहीं था। केवल 20,000 हरयाणा सर्वखाप पंचायत के वीर सैनिक उसकी ओर थे। सदाशिव भाऊ ने इस युद्ध के लिए हरयाणा सर्वखाप पंचायत को एक पत्र भेजा था। सर्वखाप पंचायत ने चौ० श्योलाल जाट के नेतृत्व में अपने 20,000 वीर सैनिक भाऊ की सहायता के लिए भेजे, जो अधिकतर, शत्रु से लड़ते हुए, वीरगति को प्राप्त कर गए।

दोनों ओर की सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआऔर भारी मारकाट हुई। 14 जनवरी,1761 ई० को भाऊ की सेना हारकर मैदान छोड़ गई और अब्दाली विजयी रहा। सदाशिवराव भाऊ इस युद्ध में मारा गया। उसके सैनिक तथा नौकर-चाकर व स्त्रियां भागकर महाराजा सूरजमल के राज्य में प्रवेश कर गये।

पानीपत के सर्वनाश से बच निकलने वाले
 पीड़ित एवं घबराए हुए मराठा सैनिकों ने
जाट प्रदेश में प्रवेश किया। जैसे ही
 सूरजमल को मराठों की दयनीय स्थिति
 का पता चला, उसने अपने सारे राज्य
 में यह राजकीय निर्देश भिजवा दिया कि
 “सभी लोग इस बात का ध्यान रखें कि वे
 मराठों को परेशान न करें तथा उनकी
 हर संभव सहायता करें। जो जितना दे
सके, वह आने वाले शरणार्थियों को
अन्न-वस्त्र प्रदान करे।

मथुरा में प्रवेश करते ही शरणार्थियों को आश्रय मिलना शुरु हो गया था, जहां सूरजमल व रूपराम कटारिया ने पहले ही एक लाख रुपये तथा सहायता सामग्री भिजवादी थी। सूरजमल की रानी किशोरी ने भरतपुर में पौष मास की सर्दी में ठिठुरते हुए और भूखे मराठा ब्राह्मणों को अन्नदान एवं वस्त्रदान करके बहुत धर्म एवं पुण्य अर्जित किया। उसने स्थान-स्थान पर अपने सवारों को भेजकर भागते हुए मराठों को बुलाकर लगभग 30-40 हजार लोगों को कई दिनों तक खाना खिलाया और ब्राह्मण शरणार्थियों में दूध व पेड़े बांटे (भाऊ बखर, पृ० 161)। सर यदुनाथ सरकार ने शरणार्थियों की संख्या 50,000 लिखी है, परन्तु वैण्डलकी लिखी संख्या 1,00,000 अधिक यथार्थ है।

प्रमुख मराठा शरणार्थियों में जो जाट दुर्ग में पहुंचे, मल्हारराव होल्कर, भाऊ की पत्नी पार्वती बाई, नाना पुरन्दरे, दमाजी गायकवाड़, विट्ठल सदाशिव आदि अनेक लोग थे। पेशवा बाजीराव का पुत्र शमशेर बहादुर* घायल अवस्था में डीग पहुंचा था। सूरजमल ने उसका बहुत उपचार कराया किन्तु वह बच नहीं सका। जाट राजा ने बयाना में उसका मकबरा बनवाया। (भाऊ बखर, पृ० 162; काशीराज, पृ० 50; मीरात-ए-अहमदी, पृ० 917)। वंश भास्कर, पृ० 3696 पर लिखा है कि “पराजय सम्मुख जानकर होल्कर अपनी दस हज़ार सेना के साथ रणक्षेत्र से निकलकर सुरक्षित जाट प्रदेश भरतपुर में आ गया।”

ग्रांड डफ ने मराठे शरणार्थियों के साथ सूरजमल के बर्ताव के बारे में लिखा है - जो भी भगोड़े उसके राज्य में आये, उसके साथ सूरजमल ने अत्यन्त दयालुता का व्यवहार किया और मराठे उस

अवसर पर किये जाटों के व्यवहार को आज भी कृतज्ञता एवं आदर से याद करते हैं। (ग्रांड डफ, ‘ए हिस्ट्री ऑफ दि मराठाज’, पृ० 156)।
भाऊ की पत्नी पार्वती बाई का डीग
 दुर्ग में सूरजमल ने बड़े सम्मान से
स्वागत किया। कुछ दिन बाद जब
 वह दक्षिण जाने के लिए ग्वालियर
 रवाना हुई, तो उसे काफी धन, वस्त्र
 देकर साथ में एक रक्षकदल भी भेजा
 गया। ठा० देशराज के अनुसार - “सूरजमल
ने पार्वती बाई और सरदारों को एक-एक
 लाख रुपया देकर अपनी अधिरक्षता
 में दक्षिण की ओर भिजवा दिया।”
दक्षिण के लिए रवाना होने पर रानी किशोरी ने प्रत्येक मराठा सिपाही को पांच रुपये नकद, एक धोती, एक रिजाई और आठ दिन का अन्न साथ में प्रदान किया। इस प्रकार उसने उन पर दस लाख रुपये खर्च किये।

यदि सूरजमल भाऊ द्वारा उसके साथ किए गए दुर्व्यवहार को भूलकर संकट की इस घड़ी में मराठों की सहायता न करता, तो गिनती के लोग ही पेशवा को पानीपत की दुखान्तिका सुनाने नर्मदा पार पहुंच पाते। परन्तु उसने विजेता एवं शक्तिशाली अब्दाली की शत्रुता का खतरा उठाकर भी हिन्दू धर्म एवं मानवीय व्यवहार का परिचय दिया। उसकी इस विशालहृदयता की सभी समकालीन फारसी एवं मराठा लेखकों ने मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है1। (भाऊ बखर, पृ० 161-162; भाऊ कैफियत पृ० 27-28; पुरन्दरे दफ्तर, 1, पत्र 417; काशीराज, पृ० 50-51; नूरूद्दीन, पृ० 51ब; इमाद, पृ० 203; बयान-ए-वाक़या, पृ० 293)।
सूरजमल ने भाऊ के सामने अपने जो सुझाव
 रखे थे वे इतने लाभदायक थे कि अगर
 भाऊ उन पर अमल करके अब्दाली का
 मुकाबला करता तो जीत अवश्य मराठों
की होती। भारत का नक्शा फिर और
 ही तरह का होता।

अब्दाली के हाथों हुई मराठों की इतनी
 बुरी हार के बाद से ही वह कहावत
प्रसिद्ध हुई -

जाटों के बिना किसने पानीपत जीते है 



 


जाटों के बिना किसने पानीपत जीते

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